उन आँखों की चमक में कोई दर्द छुपा बैठा था
जिसको ढूँढतीं थीं वो, ना जाने कहाँ बैठा था ॥
मुन्तज़िर ये दिल, उनके दीदार के लिए
चुपचाप देखता, अपना चैंन गवां बैठा था ।
जिसको ढूँढतीं थीं वो, ना जाने कहाँ बैठा था ॥
मुसलसल चल रहा था ये, सिलसिला इक अर्से से
ये दर्द मीठा सा, लब-ए-ग़ज़ल बन बैठा था ।
जिसको ढूँढतीं थीं वो, ना जाने कहाँ बैठा था ॥
वो चाँद सीं माना, राही उनकी मोहब्बत में
होकर के दीवाना, दिल बादल बन बैठा था ।
जिसको ढूँढतीं थीं वो, ना जाने कहाँ बैठा था ॥
झूठ कहते हैं कि इश्क़ आग का दरिया है
मौत आयी तो, ये दिल उनके दामन में बैठा था ।
उन आँखों की चमक में कोई दर्द छुपा बैठा था
जिसको ढूँढतीं थीं वो, ना जाने कहाँ बैठा था ॥
-- राही
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